आपकी हर सांस के लिए शरीर नहीं, जिम्मेदार है पृथ्वी का धीमा चक्कर.

Earth's Slow spin oxygen
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आप को सांस लेने के लिए हवा कहां से मिलती है? वायुमंडल से, पेड़-पौधों से, जमीन और समुद्र में फैली सूक्ष्मजीवों की चटाई से या कहीं और से. इन सभी जगहों से मिलती है. लेकिन वायुमंडल और पेड़-पौधे हमें ऑक्सीजन तब देते हैं, जब धरती इन्हें इस बात की अनुमति देती है. अगर हमारी पृथ्वी अनुमति न दे तो आपको ऑक्सीजन न मिले. अब आप सोचेंगे कि धरती अनुमति कैसे देती है? हैरान करने वाला खुलासा ये है कि धरती के धीमे चक्कर की वजह से हमें ज्यादा ऑक्सीजन मिलती है. आइए जानते हैं कैसे?  

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हमारा नीला ग्रह ऑक्सीजन से भरपूर कैसे हुआ? इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है धरती का धीमे चक्कर लगाना. हमारी धरती के धीमे चक्कर लगाने की वजह से सूक्ष्मजीव (Microbes) ज्यादा समय के लिए दिन में सूरज की रोशनी में रहते हैं. वो ऑक्सीजन रिलीज करते हैं. आपकी हर सांस के पीछे करोड़ों साल का इतिहास जिम्मेदार है. क्योंकि करोड़ों साल पहले साइनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria) नाम के सूक्ष्मजीवों की चादर धरती पर बिछी थी. यह आज भी है. ये फोटोसिंथेसिस के जरिए ऑक्सीजन को बाइप्रोडक्ट के तौर पर निकालते हैं. ऑक्सीजन पैदा करने वाली इस चादर के विकसित होने की पीछे वजह है धरती का धीमा चक्कर लगाना.

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हालांकि, वैज्ञानिक आज भी यह बात स्पष्ट तौर पर नहीं कह सकते हैं कि धरती बार ऑक्सीजन बढ़ने की दो बड़ी घटनाएं कैसे विकसित हुईं. पृथ्वी कैसे पहले कम ऑक्सीजन पैदा करती थी और आज इतना ज्यादा. अगर यही ऑक्सीजन न होती तो इंसान जैसे जटिल जीवों का जन्म धरती पर कभी नहीं होता. जितना ज्यादा ऑक्सीजन उतना ज्यादा जीवन. 

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अब जाकर वैज्ञानिक धरती को ऑक्सीजन से परिपूर्ण ग्रह बनने की असली वजह के करीब पहुंच पाए हैं. धरती पर सूक्ष्मजीवों की चादर से निकलने वाली ऑक्सीजन की सबसे बड़ी वजह है धरती का अपनी धुरी पर धीमे घूमना. धरती का अपनी धुरी पर घूमने की शुरुआत करीब 240 करोड़ साल पहले हुई थी. क्योंकि धरती जब युवा थी…नई-नई बनी थी, तब यह बहुत तेजी से अपनी धुरी पर घूमती थी. इसका एक चक्कर कुछ ही घंटों में पूरा हो जाता था.

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करोड़ों साल पहले जब धरती ने धीमे-धीमे घूमना शुरु किया तब दिन की रोशनी का अपना समय तय हो गया. ये दिन का समय यानी सूरज की रोशनी लंबे समय तक धरती को छूती थी. इसकी वजह से सूक्ष्मजीवों को सूरज की रोशनी में रहकर ज्यादा फोटोसिंथेसिस करने का मौका मिला. जिसका बाइप्रोडक्ट है ऑक्सीजन (Oxygen) यानी अपना O2. वैज्ञानिकों ने देखा कि जिन जगहों पर सूक्ष्मजीवों यानी साइनोबैक्टीरिया और उस जैसे जीवों की मौजूदगी ज्यादा होती है, वहां पर ऑक्सीजन का स्तर भी ज्यादा होता है. 

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वैज्ञानिकों ने हाल ही में अमेरिकी राज्य मिशिगन और कनाडाई राज्य ओटांरियो की सीमा पर स्थित लेक हुरॉन (Lake Huron) में बने एक सिंकहोल की अधय्यन कर रहे थे. लेक हुरॉन दुनिया की सबसे बड़ी साफ पानी की झीलों की सूची में शामिल है. लेक के बीच में एक द्वीप है, जिसपर यह सिंकहोल बना है. इसका व्यास करीब 300 फीट है. यह सतह से करीब 80 फीट गहरी है. इस झील के पानी में सल्फर की मात्रा ज्यादा है, इसलिए यहां पर कई तरह के रंगीन सूक्ष्मजीवों का जमावड़ा है. 

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लेक हुरॉन (Lake Huron) में पाए जाने वाले कुछ सूक्ष्मजीव तो धरती पर मौजूद प्राचीन बैक्टीरिया की प्रजातियों से हैं. इस झील में दो प्रकार के सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी है. पहले वो जो सूरज की रोशनी चाहने वाले बैंगनी साइनोबैक्टीरिया (Purple Cyanobacteria). ये फोटोसिंथेसिस के जरिए ऑक्सीजन पैदा करते हैं. दूसरे सफेद रंग के बैक्टीरिया, जो सल्फर को खाते हैं. सल्फेट रिलीज करते हैं. 

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सफेद बैक्टीरिया सुबह, शाम और रात में बैंगनी साइनोबैक्टीरिया को ढंक लेते हैं. लेकिन जैसे ही सूरज की रोशनी आती है, ये पानी में अत्यधिक गहराई में चले जाते हैं. जब दिन की रोशनी तेज होती है, तब ये सफेद बैक्टीरिया भाग जाते हैं. यहीं पर बैंगनी साइनोबैक्टीरिया अपना फोटोसिंथेसिस का काम शुरू करते हैं, ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन रिलीज करते हैं. जर्मनी के बर्लिन स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन माइक्रोबायोलॉजी की साइंटिस्ट जुडिथ क्लैट ने कहा कि दिन की रोशनी और ऑक्सीजन के उत्पादन के बीच सीधा संबंध है. जब दिन की रोशनी में परिवर्तन होता है तब ये सूक्ष्मजीव ज्यादा रोशनी वाली जगहों पर चले जाते हैं, ताकि फोटोसिंथेसिस के जरिए ऑक्सीजन उत्पादन कर सकें.

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जुडिथ क्लैट ने कहा कि दिन छोटा होगा तो ऑक्सीजन का स्तर भी कम हो जाएगा. अभी धरती धुरी पर अपना एक चक्कर करीब 24 घंटे में लगाती है. लेकिन 400 करोड़ साल पहले यह 6 घंटे में एक चक्कर लगाती थी. करोड़ों साल लगे लेकिन धरती और चांद की चाल के बीच एक तालमेल बन गया. इनकी गति धीमी हो गई. यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन कॉलेज ऑफ लिटरेचर, साइंस एंड आर्ट्स में अर्थ एंड एनवायरमेंट विभाग के प्रोफेसर ब्रायन अरबिक ने कहा कि चांद की गति और चक्कर की वजह से समुद्र में लहरों पर असर पड़ने लगा. धरती के घूमने की गति कम हुई तो चांद का खिंचाव भी बढ़ा.

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ब्रायन ने कहा कि दिन के घंटे बढ़ने में सैकड़ों करोड़ साल लग गए. आज भी धरती अपनी गति को लगातार कम कर रही है. चांद के खिंचाव की वजह से पैदा होने वाले टाइडल फ्रिक्शन (Tidal Friction) लगातार धरती की गति को धीमा करने में लगा है. इसी वजह से धरती पर अलग-अलग देशों में दिन के समय में अंतर भी दिखाई देता है. इसलिए वैज्ञानिकों ने दिन की रोशनी और सूक्ष्मजीवों से निकलने वाले ऑक्सीजन को लेकर एक मॉडल बनाया. जब लेक हुरॉन के सिंकहोल में मौजूद बैक्टीरिया की इस मॉडल के आधार पर स्टडी की तो पता चला कि दिन बड़ा यानी ज्यादा ऑक्सीजन. दिन छोटा मतलब कम ऑक्सीजन का उत्पादन.

 

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ब्रेमेन स्थित लीबनिज सेंटर फॉर ट्रॉपिकल मरीन रिसर्च के साइंटिस्ट अर्जुन छेनू ने कहा कि ज्यादा ऑक्सीजन का मतलब ये नहीं की सूक्ष्मजीवों ने ज्यादा फोटोसिंथेसिस किया. बल्कि ज्यादा समय तक सूरज की रोशनी की वजह से सूक्ष्मजीवों की चादर से एक दिन में ज्यादा ऑक्सीजन बाहर निकला. इसे ऑक्सीजन एस्केप (Oxygen Escape) कहते हैं. धरती का वायुमंडल बनने में, धरती के ठंडा होने में करीब 460 करोड़ साल लग गए. 

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अर्जुन छेनू ने बताया कि करोड़ों साल पहले धरती के निर्माण के समय हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ज्यादा थी. आज की तुलना में तब कार्बन डाईऑक्साइड 200 गुना ज्यादा था. यह स्टडी स्मिथसोनियन एनवायरमेंट रिसर्च सेंटर ने कराई थी. इसमें बताया गया था कि कैसे 240 करोड़ साल पहले धरती पर ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट (GOE) की शुरुआत हुई थी. तब यह बेहद कम था. आज इतना है कि सारे जीव सांस ले पा रहे हैं. यानी धरती के घूमने की प्रक्रिया को धन्यवाद कहना चाहिए. 

धरती का केंद्र एक किनारे की ओर ज्यादा जा रहा है, एशिया के ठीक नीचे… होगा खतरा?

Earth’s inner core
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धरती की सबसे अंदरूनी परत जिसे इनर कोर कहते हैं, वह एक तरफ बढ़ रहा है. जिससे वैज्ञानिक काफी हैरान-परेशान हैं. क्योंकि इससे हमारे जीवन और धरती पर क्या बदलाव होंगे, इसका सही-सही अंदाजा फिलहाल नहीं लगाया जा पा रहा है. हमारे पैरों से करीब 5 हजार किलोमीटर नीचे धरती का इनर कोर है. इसे साल 1936 में खोजा गया था. इससे पहले इसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता था

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करीब 100 साल होने को हैं लेकिन अभी तक वैज्ञानिक यह पता नहीं कर पाए हैं कि यह कब और कैसे बना? इसका अध्ययन करने के लिए दुनिया भर के सीस्मोलॉजिस्ट (Seismologists) यानी भूकंप विज्ञानी, मिनरल फिजिसिस्ट (Mineral Physicists) यानी खनिज भौतिकविद और जियोडायनेमिसिस्ट (Geodynamicists) लगे हुए हैं. तीनों मिलकर भूंकपीय गतिविधि, भूकंपीय तरंगों और खनिजों के भौतिक विज्ञान का अध्ययन करके धरती के इनर कोर के व्यवहार को समझने का प्रयास कर रहे हैं.।

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माना जाता है कि धरती के इनर कोर लोहे का बना है. तीनों तरह के वैज्ञानिकों ने मिलकर एक नई स्टडी की. इसमें बताया गया है कि धरती का इनर कोर (Earth’s Inner Core) बहुत तेजी से विकसित हो रहा है. लेकिन दिक्कत ये है कि ये एक तरफ फैल रहा है. वैज्ञानिकों को लगता है कि इससे वो इनर कोर की उम्र का पता लगा सकते हैं. साथ ही धरती की चुंबकीय शक्ति का इतिहास भी पता चलेगा. लेकिन इनर कोर के एक तरफ फैलने या विकसित होने से किस तरह की दिक्कत आएगी…इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है. यह स्टडी हाल ही में नेचर जर्नल में प्रकाशित हुई है।

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धरती के बनने का इतिहास करीब 450 करोड़ साल पुराना है. उसका केंद्र यानी कोर करीब शुरुआती 20 करोड़ साल में बनना शुरु हुआ था. युवा धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ने भारी लोहे धरती के केंद्र में खींच लिया. इसके बाद पथरीले और सिलिकेट खनिजों को ऊपर छोड़ दिया ताकि मैंटल (Mantle) और क्रस्ट (Crust) का निर्माण हो सके।

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धरती के निर्माण के समय काफी ज्यादा गर्मी पैदा हुई जो धरती के अंदर समाहित होती चली गई. लेकिन साथ ही चल रहे रेडियोएक्टिव निष्क्रियता की प्रक्रिया ने इस गर्मी को कम करने का काम भी किया. धीरे-धीरे हमारी धरती ने यह रूप लेना शुरु किया, जैसा कि अभी है. गर्मी कम होने की वजह से धरती के केंद्र से तरल लोहे का आउटर कोर (Liquid Iron Outer Core) बना. इसी की वजह से धरती का चुंबकीय क्षेत्र बना और काम करता है.

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जैसे-जैसे धरती ठंडी होती चली गई, टेक्टोनिक प्लेट्स (Tectonic Plates) को ताकत मिली और उनके जुड़ने और टूटने से धरती पर कई महाद्वीपों का निर्माण हुआ.  धीरे-धीरे धरती ठंडी होती चली गई. तापमान इतना कम हो गया कि लोहा अपने मेल्टिंग प्वाइंट पर आकर टिक गया. उच्च स्तर का दबाव बर्दाश्त करने लगा. इसके साथ ही इनर कोर का क्रिस्टेलाइजेशन (Crystallisation) शुरू हो गया.

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इस समय धरती के इनर कोर (Earth’s Inner Core) का रेडियस हर साल 1 मिलीमीटर की दर से बढ़ रहा है. यानी हर सेकेंड 8000 टन पिघला हुआ लोहा ठोस बन रहा है. भविष्य में करोड़ों साल बाद धरती का इनर कोर (Earth’s Inner Core) ठोस लोहे में बदल जाएगा. इसके साथ ही खत्म हो जाएगी धरती की चुंबकीय शक्ति. फिर धरती पर क्या होगा.

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ऐसा माना जा सकता है कि धरती का इनर कोर (Earth’s Inner Core) चारों तरफ से ठोस हो रहा है. लेकिन ऐसा है नहीं. 1990 में भूकंप विज्ञानियों ने देखा कि धरती के इनर कोर से टकराने वाली भूकंपीय लहरें या तरंगें एक समान नहीं हैं. इसका मतलब ये है कि धरती के इनर कोर के आकार में कहीं कोई असमानता है. या फिर एक तरफ बदलाव हो रहा है. जिसे आज ये कहा जा रहा है कि यह एक तरफ तेजी से बढ़ रहा है.

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धरती के इनर कोर (Earth’s Inner Core) के चार हिस्से हैं. जो चारों दिशाओं में बांटे गए हैं. इसके पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों के आकार में बदलाव आ रहा है. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इनर कोर का पूर्वी हिस्सा एशिया (Asia) और हिंद महासागर (Indian Ocean) के नीचे है. दूसरा यानी पश्चिमी हिस्सा अमेरिका (US), अटलांटिक महासागर और पूर्वी प्रशांत महासागर के नीचे है।

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जब वैज्ञानिकों ने इनर कोर के पूर्वी और पश्चिमी छोरों के अध्ययन के लिए नए भूकंपीय आंकड़े जुटाए. उन्हें जियोडायनेमिक मॉडलिंग और उच्च दबाव में लोहे के व्यवहार को मिलाया गया. तब पता चला कि इंडोनेशिया के बांडा सागर (Banda Sea) के ठीक नीचे पूर्वी इनर कोर (Eastern Inner Core) तेजी से बढ़ रहा है. यह ब्राजील के ठीक नीचे मौजूद पश्चिमी इनर कोर (Western Inner Core) की तुलना में ज्यादा फैल रहा है.

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आप सोच रहे होंगे कि इससे होगा क्या? तो ऐसे समझिए कि आपके फ्रिज के फ्रीजर में एक तरफ ज्यादा बर्फ जम जाए और दूसरी तरफ कम. यानी फ्रीजर में एक तरफ ज्यादा ठंडी हो रही है, दूसरी तरफ कम. ठीक इसी तरह यानी धरती का इनर कोर एक तरफ ज्यादा तेजी से ठंडा हो रहा है. दूसरी तरफ कम. भविष्य में यानी करोड़ों सालों में धरती के एक हिस्से से चुंबकीय शक्ति यानी मैग्नेटिक फील्ड खत्म हो जाएगी. यह धरती के आधे हिस्से में प्रलय ला सकता है.

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धरती का इनर कोर (Earth’s Inner Core) का एक हिस्सा यानी पूर्वी हिस्सा अगर जल्दी से बढ़कर ठोस हो गया. तो उसके ऊपर की चुंबकीय शक्ति खत्म. इसका मतलब इंडोनेशिया समेत कई एशियाई देशों के ऊपर से गुरुत्वाकर्षण शक्ति खत्म. जीपीएस प्रणाली ठप. इंसान और जीव-जंतु हवा में तैरते नजर आएंगे. धरती के एक तरफ का समुद्र दूसरी तरफ भागने लगेगा. एशिया में बारिश नहीं होगी. इस तरह की दिक्कतें बढ़ जाएंगी. लेकिन घबराइए नहीं…यह प्रक्रिया इतनी जल्दी नहीं होगी. इसमें करोड़ों साल लगेंगे।

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नई स्टडी के लिए तैयार किए गए अध्ययन प्रणाली से वैज्ञानिकों ने धरती के इनर कोर (Earth’s Inner Core) की उम्र पता की. नई गणना के अनुसार यह 50 करोड़ से 150 करोड़ साल के बीच है. वैज्ञानिकों का मानना है कि इनर कोर का कम उम्र ही ज्यादा सही लगता है. यानी 50 करोड़ साल. जबकि, ज्यादा उम्र वाली संख्या यानी 150 करोड़ साल उसके चुंबकीय शक्ति की ताकत को विकसित होने का सबूत देता है. 

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क्या होगा अगर धरती का इनर कोर पूरी तरह गोल न होकर किसी और आकार में हो जाए. या उसकी ताकत या क्षमता एक तरफ ज्यादा या कम हो. सौर मंडल में ऐसे कई ग्रह हैं, जिनका इनर कोर इसी तरह से है. मंगल ग्रह (Mars) के इनर कोर का उत्तरी हिस्सा निचला है, जबकि दक्षिणी हिस्सा पहाड़ी है. धरती के चांद (Moon) की बाहरी परत यानी क्रस्ट के नीचे इनर कोर का हिस्सा दूसरी तरफ से रासायनिक तौर पर अलग है.

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बुध (Mercury) और बृहस्पति (Jupiter) में इनर कोर के बदलाव के चलते चुंबकीय शक्ति अलग-अलग महसूस होती है. दोनों ग्रहों के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर मैग्नेटिक फील्ड में काफी अंतर है. तो कुल मिलाकर ये है कि धरती के केंद्र में हो रहे बदलाव से फिलहाल आम लोगों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. वैज्ञानिक लगातार अधय्यन कर रहे हैं. अनुमान है कि भविष्य में भी ऐसी कोई दिक्कत नहीं आएगी, जिससे कोई बड़ी तबाही हो.